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भज मन चरण कँवल अविनासी– मीराबाई

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"मीरा के पद"

भज मन चरण कँवल अविनासी।
जेताई दीसे धरण गगन बिच, तेताइ सब उठि जासी।
कहा भयो तीरथ ब्रत कीन्हें, कहा लिए करवत कासी।
इस देही का गरब न करणा, माटी में मिल जासी।
यो संसार चहर की बाजी, साँझ पड्यो उठ जासी।
कहा भयो है भगवा पहरयाँ, घर तज भये संन्यासी।
जोगी होय जुगत नहि जाणी, उलटि जनम फिर आसी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, काटो जनम की फाँसी।

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संदर्भ

प्रस्तुत पद्यांश 'मीरा के पद' नामक शीर्षक से लिया गया है। इसकी रचना कवयित्री 'मीराबाई' ने की है।

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प्रसंग

प्रस्तुत पद्यांश में मीराबाई के कभी न नष्ट होने वाले परमेश्वर (श्री कृष्ण) के प्रति भक्तिभाव का उल्लेख किया गया है।

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महत्वपूर्ण शब्द

अविनासी- कभी नष्ट न होने वाले, जेताई- जितना, दीसे- दिखाई देता है, धरण- धरती, गगन- आकाश, ते ताई- उतना ही, उठ जासी- उठ जाता है, करवत काशी- स्वर्ग प्राप्ति की कामना से काशी में प्राण देना, चहर- चौपड़, जुगत- ईश्वर को पाने की युक्ति, फाँसी- बंधन।

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व्याख्या

प्रस्तुत पद्यांश में मीराबाई कहती हैं, कि हे मन! तू कभी न नष्ट होने वाले परमपिता परमेश्वर भगवान श्री कृष्ण का ध्यान कर। इस संसार में धरती और आकाश के मध्य जो कुछ भी दिखाई देता है, वह नश्वर है। अर्थात् नष्ट होने वाला है। तीर्थाटन और व्रत करने से कोई लाभ नहीं है। काशी में स्वर्ग प्राप्ति की कामना से प्राण देने से भी कोई लाभ नहीं है। मीरा कहती हैं, कि हमें इस नश्वर शरीर पर अभिमान नहीं करना चाहिए। यह एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। अर्थात् समस्त जीवित प्राणियों की मृत्यु निश्चित है। यह संसार एक चौपड़ की बाजी के समान है, जो शाम होते ही उठ जाती है। गेरुआ रंग के वस्त्र धारण करने और सन्यासी बनने से भी कोई लाभ नहीं है। यदि योगी होकर भी परमेश्वर को प्राप्त करने का उपाय न खोज पाए, तो पुनः इसी संसार में जन्म लेना पड़ेगा। मीरा कहती हैं, कि हे गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण! मुझे मुक्ति प्रदान कीजिए।

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काव्य-सौंदर्य

प्रस्तुत पद से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं–
1. श्रीकृष्ण की भक्ति में मग्न मीराबाई इन सांसारिक बंधनों से मुक्त होना चाहती हैं।
2. राजस्थानी से प्रभावित ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है।
3. अनुप्रास, रूपक और उपमा अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
4. पद-मैत्री का प्रयोग देखने योग्य है।
5. माधुर्य गुण का प्रयोग किया गया है।
6. प्रस्तुत पद में संगीतात्मकता एवं लयबद्धता है।
7. संतमत का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
8. इस पद्यांश की पद शैली अद्भुत है।
9. यह पद शांत रस का अनूठा उदाहरण है।

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आए हौ सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तोपै– जगन्नाथ दास 'रत्नाकर'

आशा है, उपरोक्त जानकारी आपके लिए उपयोगी होगी।
धन्यवाद।
R F Temre
rfcompetition.com

आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
(I hope, the above information will be useful and important.)
Thank you.
R.F. Tembhre
(Teacher)
EduFavour.Com

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