भारत के इतिहास में अमर महान विद्वान, न्यायप्रिय एवं शक्तिशाली चक्रवर्ती सम्राट राजा भोज मालवा के परमार शासक सिंधुराज के पुत्र थे। सिंधुराज स्वयं भी एक योग्य और पराक्रमी शासक माने जाते थे। राजा भोज का जन्म 10वीं शताब्दी के अंत में हुआ माना जाता है और उन्होंने लगभग 1010 ईस्वी से 1055 ईस्वी तक शासन किया।
राजा भोज की राजधानी धारानगरी (वर्तमान धार) थी, जो आज भी धार जिले में स्थित है। उनका साम्राज्य मालवा, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ था। उन्होंने अपनी सामरिक नीति और युद्ध-कुशलता से कई बार अपने राज्य की सीमाओं की रक्षा की और उनका विस्तार भी किया। मध्य युग के महान शासकों में राजा भोज का महत्वपूर्ण स्थान है।
विद्या और साहित्य का संरक्षणराजा भोज का नाम भारतीय इतिहास में एक विद्वान शासक के रूप में सदा-सदा के लिए अमर है। वे संस्कृत, व्याकरण, दर्शन, काव्य, विज्ञान, स्थापत्य, ज्योतिष, और योग के ज्ञाता थे। वे न केवल तलवार के धनी थे, बल्कि कलम के भी योद्धा थे। राजा भोज कलम के साथ-साथ तलवारबाजी की कला जानते थे। तत्कालीन समय में मालवा के परमार राज्य की सांस्कृतिक और राजनैतिक दोनों ही दृष्टियों से अभूतपूर्व उन्नति हुई। उन्होंने विद्वानों को अपने दरबार में आमंत्रित किया और उन्हें संरक्षण दिया। उनके दरबार में "नवरत्न" विद्वानों की परंपरा भी मानी जाती है। उनकी प्रमुख रचनाओं में श्रृंगार प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, श्रृंगार मंजरी, कर्मशतक, भोजचंपू, तत्वप्रकाश, कृत्यकल्पतरु, शब्दानुशासन, राजमृगांक आदि प्रसिद्ध हैं। उनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है―
समरांगण सूत्रधार― स्थापत्यकला और वास्तुशास्त्र पर आधारित एक महान ग्रंथ, जिसमें नगर निर्माण, मंदिर स्थापत्य और यंत्र-विद्या (मशीनों का विवरण) का वर्णन है।
राजमार्तण्ड― उनके द्वारा रचित योगशास्त्र पर आधारित ग्रंथ, जो पतंजलि योगसूत्र पर आधारित है।
सरस्वती कंठाभरण― यह उनके द्वारा संस्कृत व्याकरण पर रचित ग्रंथ है।
शृंगारप्रकाश, चारुचर्या एवं तत्वप्रकाश― ये अन्य विषयों पर आधारित ग्रंथ हैं।
राजा भोज कला के उदार संरक्षक और स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे। भारतीय इतिहास में उनकी ख्याति व्याप्त है। उन्होंने अपनी राजधानी धार नगर में स्थापित की थी। यह तत्कालीन समय में विद्या और कला का प्रसिद्ध केंद्र था। उन्होंने कविराज की उपाधि धारण की थी। राजा भोज ने धार में सरस्वती मंदिर और चित्तौड़ में त्रिभुवन मंदिर का निर्माण करवाया था। वे महान दानी, विद्वान और निर्माता थे। उनके द्वारा निर्मित मंदिर एवं स्थापत्य के उदाहरण इस प्रकार हैं―
(अ) भोजशाला- ज्ञान का मंदिर― राजा भोज ने धार में भोजशाला की स्थापना की, जो एक प्रतिष्ठित संस्कृत विद्यालय था। यह स्थान विद्वानों के लिए तपोभूमि जैसा था। यहाँ संस्कृत में शिक्षा, शोध और लेखन का कार्य होता था।
भोजशाला में नृत्य, संगीत, चित्रकला, खगोलशास्त्र, और धर्मशास्त्र की भी शिक्षा दी जाती थी। यह भारतीय संस्कृति और शास्त्रविद्या का गौरवपूर्ण प्रतीक रहा है।
(आ) स्थापत्य और नगर-निर्माण― राजा भोज ने कई नगरों, मंदिरों और जलाशयों का निर्माण कराया। उनके प्रमुख निर्माण कार्य इस प्रकार हैं― (i) भोजपुर मंदिर (भोजेश्वर मंदिर)― भोपाल के पास स्थित यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इसका शिवलिंग भारत के सबसे विशाल शिवलिंगों में से एक है।
(ii) भोजताल― भोपाल की झील, जिसे राजा भोज ने बनवाया था। आज भी यह भोपाल के जीवन की धड़कन है। इसके अलावा उन्होंने कई दुर्ग, किले और नगर भी बसाए।
राजा भोज शैव धर्म के अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने अन्य धर्मों का भी समान रूप से सम्मान किया। वे धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक थे। उनके शासन काल में जैन, बौद्ध, और वैष्णव परंपराओं को भी सम्मान और संरक्षण मिला।
राजा भोज ने लाट के शासक कीर्तिराज को परास्त किया था। उन्होंने कोंकण प्रदेश के शिलाहार वंश के शासकों को पराजित किया और इंद्रस्थ (वर्तमान उड़ीसा) को जीता। इसके अतिरिक्त उन्होंने चेदि वंश पर विजय प्राप्त करने में भी सफलता प्राप्त की थी। किंतु चंदेल शासक विद्याधर और चालुक्य शासक सोमेश्वर द्वितीय से उन्हें परास्त होना पड़ा। आगे चलकर चेदियों और चालुक्यों ने अपनी शक्ति को संगठित किया और राजा भोज की राजधानी पर हमला कर उनके साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया।
हालांकि राजा भोज का समय राजनैतिक अस्थिरता से भरा था। उन्हें कई शक्तिशाली शत्रुओं से सामना करना पड़ा, जिनमें प्रमुख थे― कच्छ के चालुक्य राजा भीमदेव, दक्षिण के चालुक्य राजा जयसिंह, कलचुरी वंश, चोल साम्राज्य (कुछ स्रोतों के अनुसार) इन संघर्षों के बावजूद राजा भोज ने अपने राज्य को न केवल सुरक्षित रखा, बल्कि उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ाई।
राजा भोज के शासन काल की घटना के विषय में जानकारी प्रदान करने वाले आठ अभिलेख प्राप्त हुए हैं। ये अभिलेख 1011 से 1046 ईस्वी तक की जानकारी देते हैं। उदयपुर प्रशस्ति से राजा भोज की राजनैतिक उपलब्धियों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। उनका पहला संघर्ष कल्याणी के लिए चालुक्य शासकों के साथ हुआ था। शुरुआत में राजा को सफलता प्राप्त हुई, किंतु बाद में चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय से उन्हें परास्त होना पड़ा था।
राजा भोज की मृत्यु 1055 ईस्वी के आसपास मानी जाती है। उनकी मृत्यु के बाद परमार साम्राज्य धीरे-धीरे कमजोर होने लगा। परंतु राजा भोज की कीर्ति और विरासत आज भी अमिट है। वे पंवार समाज के अग्रज माने जाते हैं। जब भी उनका नाम कहीं आता है तो प्रत्येक पंवार वंशी उनके नाम को सुनकर गौरवान्वित होता है।
उनकी मृत्यु होने पर एक लोकोक्ति कही गई जो कि सत्य है― "भोज की मृत्यु से विद्या एवं विद्वान दोनों ही निराश्रित हो गए।" राजा भोज की विद्वता और न्यायप्रियता के कारण वे कई लोककथाओं और कहावतों में सदा सदा के लिए अमर हैं। एक लोक प्रसिद्ध कहावत― "कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली।" यह कहावत सामाजिक स्तर और योग्यता के अंतर को दर्शाने के लिए कही जाती है। अनेक कविताओं और किस्सों में उनकी विद्वता और न्यायप्रियता की सराहना की गई है।
इस तरह राजा भोज न केवल एक सफल शासक थे, बल्कि वे भारतीय इतिहास के सबसे महान विद्वान सम्राटों में भी गिने जाते हैं। उन्होंने युद्धनीति, स्थापत्य, साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में जो योगदान दिए, वे भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। वह भारत के इतिहास में सदैव अमर रहेंगे एवं युगों-युगों तक पंवार समुदाय ही नहीं अपितु भारत देश के गौरव बने रहेंगे।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
(I hope, the above information will be useful and important.)
Thank you.
R.F. Tembhre
(Teacher)
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